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Blog / 03 May 2019

(आर्थिक मुद्दे) कच्चे तेल के भाव और भारतीय अर्थव्यवस्था (Crude Oil Prices and Indian Economy)

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(आर्थिक मुद्दे) कच्चे तेल के भाव और भारतीय अर्थव्यवस्था (Crude Oil Prices and Indian Economy)


एंकर (Anchor): आलोक पुराणिक (आर्थिक मामलो के जानकार)

अतिथि (Guest): पिनाक रंजन चक्रवर्ती (पूर्व राजदूत), स्कंद विवेक धर (वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार)

चर्चा में क्यों?

पिछले साल 2018 में राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते से बाहर निकलने की घोषणा की थी। उसके बाद अमेरिका ने ईरान पर नए सिरे से प्रतिबंध लगा दिया था।

  • ग़ौरतलब है कि ईरान पर इसके पहले भी प्रतिबन्ध लगाया गया था जिसे साल 2015 के परमाणु करार के बाद हटा लिया गया था।
  • लेकिन इस बार जो प्रतिबन्ध लगाया गया था, उसमें भारत समेत आठ देशों को ईरान से तेल खरीदने की अस्थायी अनुमति दी गई थी।
  • भारत के अलावा इसमें चीन, इटली, ग्रीस, जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान और तुर्की देश शामिल थे। ये छूट सिग्नीफिकेंट रिडक्शन एक्सेप्शंस (Significant Reduction Exceptions- SREs) के तहत दिया गया था।
  • हाल ही में अमेरिका ने इस छूट को निर्धारित 2 मई 2019 से ख़त्म करने का फैसला किया है।
  • ईरान ने अमेरिका के इस फैसले की आलोचना करते हुए उसे अवैध क़रार दिया है। तुर्की और चीन भी अमेरिका के इस फैसले के ख़िलाफ़ हैं।

अमेरिका ने क्यों लगाया है ईरान पर प्रतिबंध?

ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर लगाम लगाने और ईरान पर दबाव बनाने के लिहाज़ से ये प्रतिबन्ध लगाया गया है। अमेरिका का कहना है कि परमाणु क़रार ईरान को बैलिस्टिक मिसाइल बनाने और पड़ोसी देशों में दखल देने से नहीं रोक पाया है।

  • अगर अमेरिका ईरान सरकार के आय के मुख्य स्रोत को बाधित करने सफल हो जाता है तो ईरान को नए समझौते के लिए राज़ी किया जा सकता है।
  • इस प्रतिबन्ध के ज़रिये अमरीका ईरान के तेल निर्यात को शून्य तक लाना चाहता है।
  • साथ ही, इन प्रतिबंधों के तहत अमेरिका उन देशों के खिलाफ भी कठोर क़दम उठा सकता है जो ईरान के साथ कारोबार जारी रखेंगे।

क्या है ईरान परमाणु समझौता?

ईरान परमाणु समझौता 2015 में ईरान और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों जर्मनी तथा यूरोपीय संघ के बीच वियना में हुआ था। समझौते के मुताबिक़ ईरान को अपने संवर्धित यूरेनियम के भंडार को कम करना था। और बचे हुए हिस्से की निगरानी अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों से कराना था।

अमेरिका इन समझौते के बदले ईरान को तेल और गैस के कारोबार, वित्तीय लेन देन, उड्डयन और जहाज़रानी के क्षेत्रों में लागू प्रतिबंधों में ढील देने के लिए राजी था। लेकिन साल 2016 में आए ट्रम्प ने इस समझौते को घाटे का सौदा बताया और मई 2018 में अमेरिका ईरान परमाणु समझौते से बाहर हो गया।

प्रतिबंधों के लागू होने से क्या होगा भारत पर प्रभाव?

ईरान पर प्रतिबन्ध लगने का मतलब है कि एक बहुत बड़े तेल स्रोत देश को बाज़ार से हटा देना। लिहाज़ा आपूर्ति कम होने से तेल की कीमतें बढ़ सकती हैं।

  • ग़ौरतलब है कि भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता देश है, और अपनी ऊर्जा ज़रूरत का क़रीब 80% तेल बाहर से आयात करता है। कच्चे तेल की कीमतों में उछाल के बाद भारत में पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ सकते हैं।
  • अमेरिका के इस फैसले से डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया कमज़ोर पड़ सकता है।
  • इसके अलावा भारत के एक और शीर्ष तेल प्रदाता देश वेनेजुएला भी भारी उथल पुथल से जूझ रहा है। अमेरिका ने वेनेजुएला पर भी निर्यात प्रतिबन्ध लगा दिया है।

कच्चे तेल का कितना आयात करता है भारत?

  • 2014 में 189.2 मिलियन मीट्रिक टन
  • 2015 में 189.4 मिलियन मीट्रिक टन
  • 2016 में 202.9 मिलियन मीट्रिक टन
  • 2017 में 213.9 मिलियन मीट्रिक टन
  • 2018 में 2017.1 मिलियन मीट्रिक टन

ईरान भारत के लिए बेहतर विकल्प क्यों है?

ईरान भारत को तेल आयात पर कई तरह की छूट देता है। इन छूटों में - भुगतान के लिए अतिरिक्त दिन का समय, मुफ़्त बीमा और शिपिंग शामिल है। ऐसे में अमेरिकी प्रतिबंधों के लगने से इसका असर सीधे भारत पर पड़ेगा।

भारत क्यों नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता अमेरिकी प्रतिबन्ध को?

पाबंदी के दौरान व्यापार में थोड़ी दिक्कत आती है: प्रतिबंध के दौरान सेंट्रल बैंक ऑफ ईरान विदेशी वित्तीय संस्थानों के साथ ट्रांजैक्शंस नहीं कर सकता है। ऐसे में लेन-देन के लिए बैंकिंग चैनल बाधित हो जाते हैं और तेल ढोने वाले टैंकरों को इंश्योरेंस कवर भी नही मिल पाता है। पिछली पाबंदियों के दौरान भारत के सामने ऐसी समस्याएँ आ चुकी हैं।

भारत-अमेरिका द्विपक्षीय सम्बन्ध भी है अहम्: अमेरिका का कहना है कि पुलवामा में आतंकवादी हमले के बाद और संयुक्त राष्ट्र में मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करने के मामले में वह दिल्ली के साथ खड़ा रहा है। इसलिए अमेरिका को भी उम्मीद है कि वह ईरान के मसले पर उसका समर्थन करेगा।

  • इसके अलावा, रूस के साथ भारत का रक्षा सौदा और अफगानिस्तान शांति वार्ता में पाकिस्तान की भूमिका जैसे मसले भी भारत-अमेरिका द्विपक्षीय सम्बन्ध के लिहाज़ से अहम् हैं।

वैश्विक परिदृश्य भी मायने रखता है: जब बात परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने की हो तो अधिकतर देशों में व्यापक सहमति बन जाती है। यहीं मामला ईरान के साथ भी है और भारत द्वारा इसे नजरअंदाज करना बेहद मुश्किल काम है।

  • इसके अलावा, भारत के साथ कारोबार करने वाले देशों पर अमेरिकी दबाव से ईरान के साथ कारोबार करने वाली भारतीय कंपनियों के लिए चीजें मुश्किल हो सकती हैं।

पाबंदी से खुद भारत को भी कुछ फायदे की उम्मीद है: ईरान पर पाबंदी को मानकर, बदले में, भारत अमेरिका से दूसरे क्षेत्रों में छूट की मांग कर सकता है। हालांकि, ईरानी तेल का सबसे बड़ा खरीददार होने के कारण भारत को नुकसान ही है।

ईरान नहीं तो कहां से तेल खरीदेगा भारत?

ईरान पर पाबन्दी की स्थिति में भारत की निर्भरता सऊदी अरब और UAE पर ज़्यादा हो जाएगी। इसके अलावा अमेरिका ने भी भारत को अपने यहां से तेल खरीदने का प्रस्ताव दिया है। भारत इराक़, मैक्सिको और कुवैत से भी तेल आयात को बढ़ा सकता है।

भारत के लिए ईरान क्यों अहम् है?

ईरान भारत का पुराना आर्थिक और सामरिक सहयोगी है। दोनों देशों के बीच सामाजिक और सांस्कृतिक रिश्तों का पुराना इतिहास रहा है। दोनों देशों का सालाना द्विपक्षीय कारोबार क़रीब दो हज़ार करोड़ डॉलर का है। भारत ईरान को - दवा भारी मशीनरी, कल पुर्जे और अनाज का निर्यात करता है। भारतीय कम्पनियाँ ईरान के तेल रिफाइनरी, दवा, फर्टिलाइजर और निर्माण क्षेत्र में पैसा लगा रही हैं।

ईरान के ज़रिए भारत मध्य एशिया में दाख़िल हो सकता है। जिसमें रूस और अफगानिस्तान जैसे दो महत्वपूर्ण देश भी शामिल है। इसके अलावा मध्य एशिया और मध्य पूर्व में भारत और ईरान दोनों ही देशो के साझा सामरिक हित भी हैं।

चाबहार पोर्ट पर नहीं पड़ेगा कोई असर

भारत के ईरान में निवेश वाले चाबहार पोर्ट पर इस प्रतिबन्ध का कोई असर नहीं होगा। प्रतिबंधों के बावजूद भी भारत चाबहार पोर्ट में निवेश कर सकता है। भारत चाबहार पोर्ट के ज़रिए अफगानिस्तान और मध्य एशिया में अपने सामानों का निर्यात कर सकता है। दरसल चीन पकिस्तान के ग्वादार पोर्ट का विकास कर उसे OBOR (one belt one road) प्रोजेक्ट से जोड़ रहा है। चाबहार पाकिस्तान और चीन को भारत का जवाब है।

भारत के साथ तेल के अलावा दूसरे विकल्पों की तलाश में ईरान

मार्च महीने में आए सात सदस्यीय ईरानी प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों ने भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों को सुधारने के लिए अन्य क्षेत्रों में सहयोग करने की पेशकश की। ईरान बैंकिंग चैनलों के ज़रिए भारत के साथ अपने द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ावा देना चाह रहा है। मौजूदा समय में सिर्फ केवल एक बैंक (यूको बैंक) के साथ ईरान के व्यापारिक संबंध हैं।

इसके अलावा ईरान द्विपक्षीय व्यापार में सुधार लाने के लिए दोनों देशों के बीच सीमा शुल्कों को कम करने और मुक्त व्यापार समझौतों पर भी सहमति चाहता है। ईरानी संसद ने हाल ही में ईरान और भारत के बीच दोहरे कराधान से बचने के लिए एक समझौते की भी पुष्टि की। इसके अलावा ईरान ने पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए भारतीयों को स्टेपल वीजा और ई-वीजा की भी पेशकश की थी।

कैसे तय की है जाती तेल की कीमत?

तेल की कीमतें दो मुख्य चीजों पर निर्भर होती हैं - अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड ऑयल यानी कच्चे तेल की कीमत और दूसरा सरकारी टैक्स। क्रूड ऑयल के रेट पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है, मगर टैक्स सरकार अपने स्तर से घटा-बढ़ा सकती है।

पहले देश में तेल कंपनियां खुद दाम नहीं तय करतीं थीं, इसका फैसला सरकार के स्तर से होता था। लेकिन जून 2017 से सरकार ने पेट्रोल के दाम को लेकर अपना नियंत्रण हटा लिया। अब अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिदिन उतार-चढ़ाव के हिसाब से तेल की कीमतें तय होती हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की खरीद बैरल के हिसाब से होती है। एक बैरल में करीब 159 लीटर तेल होता है।

अमूमन जिस कीमत पर हम तेल खरीदते हैं, उसमें करीब पचास प्रतिशत से ज्यादा टैक्स होता है। इसमें करीब 35 प्रतिशत एक्साइज ड्यूटी और 15 प्रतिशत राज्यो का वैट या सेल्स टैक्स। दो प्रतिशत कस्टम ड्यूटी होती है, वहीं डीलर कमीशन भी जुड़ता है। तेल के बेस प्राइस में कच्चे तेल की कीमत,उसे शोधित करने वाली रिफाइनरीज का खर्च भी शामिल होता है।

सरकार ने डीजल, केरोसिन और एलपीजी की कीमतों का नियंत्रण अपने हाथ में रखा है, बाकि पेट्रोल की कीमत अंतरराष्ट्रीय मार्केट में उतार-चढ़ाव के हिसाब से तय होती है।

तेल कीमतों में वृद्धि और भारतीय अर्थव्यवस्था

इस अमेरिकी फैसले से कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में बढ़ोतरी हुई है, जिससे भारत में महँगाई दरों में मामूली बढ़ोतरी हो सकती है। इसके अलावा सरकार का तेल आयात बिल और सब्सिडी बोझ बढ़ेगा।

  • कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में प्रत्येक एक फीसदी बढ़ोत्तरी से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महँगाई दर 0.04 फीसदी बढ़ सकती है। और साथ ही थोक मूल्य सूचकांक आधारित महँगाई दर 0.1 फीसदी बढ़ेगी। हालाँकि ऐसा उस हालत में होगा, जब घरेलू बाजारों में कीमतों में वृद्धि का पूरा बोझ ग्राहकों पर डाला जाएगा।
  • कुछ दिन पहले अंतर्राष्ट्रीय तेल बेंचमार्क ब्रेंट क्रूड 75 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गया, जो नवंबर के बाद का सर्वोच्च स्तर है। अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में कच्चे तेल की वैश्विक कीमतें 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच सकती हैं। इससे भारत के चालू खाते के घाटे पर असर पड़ेगा और रुपया भी कमज़ोर होगा।
  • तेल कीमतों में वृद्धि के चलते मुद्रा स्फीति में कुछ बढ़ोत्तरी देखने को मिल सकती है। ऐसे में आगामी जून में मौद्रिक नीति समीक्षा में नीतिगत दरों में कटौती के आसार कम ही दिख रहे हैं। जबकि पाबंदी से पहले ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि आरबीआई नीतिगत दरों में कटौती कर सकती थी।
  • भारत में कुछ रिफाइनरियाँ विशेष रूप से ईरानी क्रूड पर ही आधारित हैं, इसलिये ईरान से आयात थम जाने की स्थिति में इन रिफाइनरियों में नए सिरे से निवेश करना होगा। इसके लिए भारत को अपनी विदेश नीति में जो कुछ भी बदलाव करने होंगे। साथ ही, अलग-अलग तेल कंपनियों के अलग-अलग तरीकों को एक तरह का करना काफी मायने रखता है।
  • पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक़, पिछले वित्तीय वर्ष के मुक़ाबले भारत के पेट्रोलियम उत्पादन में 4% की कमी आयी है। लिहाज़ा भारत की तेल आयत पर निर्भरता इस साल और बढ़ेगी।